सुबह सुबह जब खिड़की खोली
हवा ने पूछा....
पल भर को सो जांऊ
आँचल में छिपकर
रात भर करवटें बदलते हुए बीती हैं...
मैंने कहा
छिप जाओ आँचल में
इत्तेफ़ाक कहें या और कुछ
बेचैन रात मेरी भी गुज़्री है
सिमटकर आगोश में
मुझ से बोली
मैं तो करार पा जाऊँगी
तुम्हारी बेचैनी शायद
और बढ़ जाएगी...
मैंने कहा
इल्म कहाँ है तुम्हें
मुझे बेक़रारी में
क़रार मिलता है
यह सिलसिला
एक सदी से यू ही चलता है.......
हवा ने पूछा....
पल भर को सो जांऊ
आँचल में छिपकर
रात भर करवटें बदलते हुए बीती हैं...
मैंने कहा
छिप जाओ आँचल में
इत्तेफ़ाक कहें या और कुछ
बेचैन रात मेरी भी गुज़्री है
सिमटकर आगोश में
मुझ से बोली
मैं तो करार पा जाऊँगी
तुम्हारी बेचैनी शायद
और बढ़ जाएगी...
मैंने कहा
इल्म कहाँ है तुम्हें
मुझे बेक़रारी में
क़रार मिलता है
यह सिलसिला
एक सदी से यू ही चलता है.......
No comments:
Post a Comment