आईना-ए-शक्सियत के ज़रिए मैं आपके साथ अपने अनुभव, अपनी भावनाएं, अपनी ज़िन्दगी के पल फिर से जीने का प्रयास करुँगी....शायद कहीं इस आयने में आप को अपना "अक्स" नज़र आ जाये.....
Tuesday, November 23, 2010
सिलवटें यादों की...
शाम ढलती रही
रात गहराती रही
सिलवटें यादों की,
परत दर परत
ज़ेहन में
करवटें बदलती रही
रोज़ तो मिलती हैं यह मुझ से
आज लगती हैं कुछ बदली हुयी
भागती हुयी सी यह ज़िन्दगी
लगता है थोड़ी धीमी हुयी
नींद की चादर बन कर,
यादें,
मीठे सपने संजोती रही
शाम ढलती रही
रात गहराती रही
सिलवटें यादों की,
परत दर परत
ज़ेहन में
करवटें बदलती रही...
मूँद कर आँखें
मैं चुपचाप इनके साथ चलती रही
देख कर इनकी दुनिया
लगा मुझे अपनी दुनिया है मिली
लेकर मुझे अपनी
बाहों में,
यादें,
सारी रात जागती रही
शाम ढलती रही
रात गहराती रही
सिलवटें यादों की,
परत दर परत
ज़ेहन में
करवटें बदलती रही....
Tuesday, November 9, 2010
आखरी सफ़र
Friday, August 13, 2010
"आशा"
जब लगने लगे तुम्हें यह ज़िन्दगी बेमानी सी,
रात की चाँदनी भी लगे काली सी,
रौशनी आँखों में चुभने लगे,
अपनी आवाज़ भी ख़ामोशी लगे,
टूटता सा हर सपना हो,
सब "अपने" पर कोई "अपना" न हो.....
आँखे मूँद लेना
तुम "मुझे" अपने पास ही पाओगे!
"मैं" तुम में हूँ
तुम्हारे मन के किसी कोने में दबी-दबी सी
हलके-हलके सांस लेती हुई,
मुश्किलों में तुम्हें हौसला देती
जीवन जीने के लिए प्रेरित करती हूँ
थाम लो हाथ मेरा
मैं और कोई नहीं
एक"उम्मीद"
एक "आस"
एक "आशा" हूँ.......
Friday, July 9, 2010
कभी फुरसत मिले
Friday, June 25, 2010
कुछ यादें नमकीन सी.....
कुछ यादें नमकीन सी.....
कुछ मीठी सी और कुछ खट्टी भी......
आहट दे जाती हैं दिल के दरवाज़े पर....
खोलती हूँ जब....... न जाने कब से जो बंद है दरवाज़े.....
गिला करती हैं मुझसे....
कहती हैं इतनी देर क्यूं लगाई.....
क्या कभी मेरी "याद" नहीं आयी?
हंसती हूँ...मुस्कुराती हुयी कहती हूँ उनसे.....
"जुदा ही कब थी तुम मुझे से.....मन में बसती हो तुम...मेरी सांस में सांस लेती हुयी...
हर पल जीती हुईं...... एक अमिट एहसास बन कर"
कुछ मीठी सी और कुछ खट्टी भी......
आहट दे जाती हैं दिल के दरवाज़े पर....
खोलती हूँ जब....... न जाने कब से जो बंद है दरवाज़े.....
गिला करती हैं मुझसे....
कहती हैं इतनी देर क्यूं लगाई.....
क्या कभी मेरी "याद" नहीं आयी?
हंसती हूँ...मुस्कुराती हुयी कहती हूँ उनसे.....
"जुदा ही कब थी तुम मुझे से.....मन में बसती हो तुम...मेरी सांस में सांस लेती हुयी...
हर पल जीती हुईं...... एक अमिट एहसास बन कर"
Thursday, April 29, 2010
ज़िन्दगी ढूँढती है जीने के लिए ....
Wednesday, January 20, 2010
यह जो धुंद की गहरी चादर
यह जो धुंद की गहरी चादर
आसमान को अपने में समेटे हुए
वक़्त के रहते
छट जाएगी....
उस धुंद का क्या
जो मन मस्तिष्क को हैं
धुंदला किये हुए
यह धुंद है
झूठे दोगुले आचार विचार और संस्कारों की
जकड़े हुए है जो
इंसान को
धुंदली धुंदली सी बेड़ियों में
परत दर परत
गहराती जा रही है
यह धुंद क्या कभी छटेगी
इस धुंद को
चीर कर
क्या कभी सही मायनो में रौशनी उभरेगी?
Tuesday, January 12, 2010
मेरी पहचान
ढूँढती रहती हूँ
कहीं मिल जाये शायद
खो गयी जो कहीं
यादों के धुंदले दर्पण में मेरी पहचान
एक तस्वीर सी उभरती है
हाथ बढाती हूँ छूने के लिए
पल में ओझल वो हो जाती है
कैसी विडंबना है
मेरी पहचान आज मुझ से ही कतराती है
स्पर्श करती हूँ फिर चेहरे की रेखाओं को
शायद पहचान सकूं
एक अक्स उभरता है
अपना चेहरा
पराया पाती हूँ
कैसी पहेली है?
मेरी पहचान!!
समय के साथ और उलझती जाती है
Monday, January 11, 2010
इस शहर में
इस शहर में
ऐतबार किस पर करें
और किस पर नहीं
झूठ के दामन में
फरेब छिपा है
सच का इस शहर में
कोई हमदम नहीं
मैला सा दिल है
अजनबी चेहरे हैं
इस बस्ती में
इंसां, इंसां नहीं
मिलते हैं सभी अपनेपन से
मगर आंखों में वो सच्चा पानी नहीं
कब क्या कर जाये कोई
इस शहर में
आदमी की फितरत का
खुद आदमी को इल्म नहीं
हर गली के मोड़ पर
बे_आसरा फिरती है ज़िन्दगी
कहने को इस शहर में
आशियाने है कई...
ऐतबार किस पर करें
और किस पर नहीं
झूठ के दामन में
फरेब छिपा है
सच का इस शहर में
कोई हमदम नहीं
मैला सा दिल है
अजनबी चेहरे हैं
इस बस्ती में
इंसां, इंसां नहीं
मिलते हैं सभी अपनेपन से
मगर आंखों में वो सच्चा पानी नहीं
कब क्या कर जाये कोई
इस शहर में
आदमी की फितरत का
खुद आदमी को इल्म नहीं
हर गली के मोड़ पर
बे_आसरा फिरती है ज़िन्दगी
कहने को इस शहर में
आशियाने है कई...
Friday, January 8, 2010
मुद्दत हुई है माना
उस घर को उजड़े हुए
यादों की ज़मीं पर
बसता एक शहर अब भी है
खंडर बन गयी है ईमारत
गूंजता सन्नाटे में
एक फ़साना अब भी है
उजड़े चमन में
फूलों के रंग फीके हो चले
महकते हुए सुबोह-शाम अब भी है
ज़िन्दगी की जद्दोजहद में
चाहे खाक हो गया रिश्ता
सुलगती हुई सी राख अब भी है.....
उस घर को उजड़े हुए
यादों की ज़मीं पर
बसता एक शहर अब भी है
खंडर बन गयी है ईमारत
गूंजता सन्नाटे में
एक फ़साना अब भी है
उजड़े चमन में
फूलों के रंग फीके हो चले
महकते हुए सुबोह-शाम अब भी है
ज़िन्दगी की जद्दोजहद में
चाहे खाक हो गया रिश्ता
सुलगती हुई सी राख अब भी है.....
आईना-ए-शक्सियत
मेरा वजूद एक हथेली जैसा है,
कुछ उभरती हुयी लकीरें
मेरी शक्सियत के बारे में बहुत कुछ बयान करती हैं
और कुछ धुंदली-धुंदली सी लकीरें हैं
जिनके मायने मैं खुद ढूंढ रही हूँ
बहुत कुछ ऐसा है जो अनकहा है
बहुत कुछ ऐसा है जो उलझा-उलझा सा है
बहुत कुछ ऐसा है जो अनबूझा है
पर शायद वक़्त हाथ से फिसल रहा है..... और जब तक मैं जान पाउंगी तब तक इन हथेलीयों में झूरियों के अलावा और कुछ नहीं मिलेगा .....
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